Tuesday, September 24, 2013

जादू की यूनीफार्म में इस्‍त्री और कुछ ख्‍याल..

आमतौर पर फेसबुक पर पढ़े ज्‍यादातर स्‍टेटस याद नहीं रहते।
और कोई कारण भी तो नहीं, याद रखने का।

बहरहाल...आज सबेरे 'जादू' जी की यूनिफॉर्म प्रेस करते हुए अचानक
कथाकार सूरज प्रकाश का एक पुराना फेसबुक स्‍टेटस याद आया। उन्‍होंने कुछ ऐसा लिखा था--'बरसों पहले बेटे की यूनीफॉर्म प्रेस करता था, आज उसकी नौकरी के पहले दिन उसकी शर्ट प्रेस कर रहा हूं'। शब्‍दों का हेर-फेर हो सकता है, पर मर्म यही था।

आज सबेरे हड़बड़ी में जादू की यूनीफॉर्म प्रेस करते हुए सूरज जी की बात याद आ गयी। जबकिIMG_3638 इससे पहले कभी भी ये बात याद नहीं आयी थी। ना ही हमें ये पता था कि ये बात हमारे मन के किसी कोने में संग्रहीत है। सचमुच लगा कि दिन यूं ही हवा होते जायेंगे और एक दिन जादू जी बड़े होकर अपने काम पर जा रहे होंगे और शायद हम भी सूरज जी की तरह उनकी कमीज़ प्रेस करेंगे।
हालांकि मुंबई की भागदौड़ में अपने कपड़े इस्‍त्री करने का समय भी कहां। भला हो प्रेस वाले का--जो सबेरे सबेरे बेल बजाता है। और दरवाज़ा खोलो तो मुस्‍कुराते हुए पूछता है--'कपड़े'। वो उसी समय आता है जब आप सबसे ज्‍यादा जल्‍दी में हों। भागदौड़ मची हो। वो ना हो तो हम लोगों  के क्‍या हाल हों।

पर वो दिन याद आते हैं जब छात्र-जीवन में मां ने अपने कपड़े स्‍वयं धोने और प्रेस करने की आदत लगायी थी। और हम बचपन के अपने भारी-भरकम प्रेस से हर रविवार अपनी यूनीफॉर्म तैयार करते थे। ये आदत नौकरी के शुरूआती दिनों तक बाक़ायदा कायम रही। बचपन में कितनी बार प्रेस ने अपनी तपिश का 'वक्र' निशान हमारे हाथ पर बनाकर हमें जलाया। लेकिन हल्‍के गीले करके कपड़ों को प्रेस करने की खुश्‍बू ही अलग थी। उसका मज़ा ही अलग था। और फिर अपना काम स्‍वयं करने का गर्व भी तो होता था उन दिनों में। उस पर तुर्रा ये होता था कि कभी कभी छोटा भाई या छोटी बहन अपनी यूनीफार्म भी प्रेस करवा लिया करते थे। भाई कर दो ना। एक ही तो है। क्‍या दिन थे वो।

आज मन में ये सवाल आया कि अब तो हम कभी-कभार इमरजेन्‍सी में ही अपने कपड़े प्रेस करते हैं। पर क्‍या जादू जी वाले ज़माने में ऐसा होगा। क्‍या जादू भी अपने बेटे के लिए इसी हड़बड़ी में यूनीफार्म प्रेस करेंगे। 

6 टिप्‍पणियां :

PD said...

मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था जब कालेज होस्टल में मेरे रूममेट ने बताया की उसे कपड़ों पर आयरन करना नहीं आता है. उससे पहले मैं सोचता था की सभी कम से कम आयरन करना तो जानते ही होंगे.

jyotin kumar said...

हमारे घर में ये तय हुआ कि प्रेस वाले ने दाम बढ़ा दिए हैं इसलिए अबसे घर मैं पहनने वाले कपडे जैसे टी-शर्ट और शॉर्ट्स घर मैं ही प्रेस होंगे। पत्नी कपडे सूखने के बाद तह करके रख देती थी कि अब हमें जब पहनना होगा तब प्रेस करेंगे मगर आलसी आदमी का दिमाग बहुत चलता है. हम वो कपडे आलमारी मैं रखे चादर तकियों के नीचे रख देते है और वो अपने आप प्रेस हो जाते हैं। पहले ये आईडिया नहीं आया ख्वामखाह फालतू पैसे देते रहे. ये सच ही कहा गया है की stress में ही दिमाग ज्यादा चलता है ;-)

अफ़लातून said...

कोई '६९-'७० की बात होगी।अगले दिन स्कूल में सालाना खेल होने थे। बड़े भाई के लाख समझाने पर भी मोजा प्रेस करने को कहा। मोजा नायलोन का था !

सूरज प्रकाश. Blog spot. In said...

युनूस भाई अच्‍छा याद दिलाया। एक मजेदार बतायें। बैंक से रिटायरमेंट से पहले हमारी एक ट्रेनिंग होती है। हेल्थ मैनेजमेंट, वेल्‍थ मैनेजमेंट,टाइम मैनेजमेंट, रिस्‍पेक्‍ट मैनेजमेंट वगैरह। उसमें बताया गया कि रिटायरमेंट के बाद जीवन के सभी पक्ष और रोल बदल जाते हैं और आपको सुखी रहना हो तो सबके लिए तैयार रहना होगा। मसलन तब काम पर जाने वाले बच्‍चे पहले बाथरूम जायेंगे,पेपर पहले वे पढेंगे, बच्‍चों को नाश्‍ता भी मिलेगा, कपड़े तो उनके आप प्रेस करेंगे ही किसी दिन फरमान सुना दिया जा सकता है कि खाली बैठे हैं, बेटे को देर हो रही है,उसके जूते ही पॉलिश कर दो।

Anonymous said...

Mujhe press karna kabhi nahi aaya. Shadi se pahle mummy kar diya karti thi....aur ab shadi ke baad chunki hum dono naukri karte hain....so time hi nahi hai press karne ka....bahar se hi press hokar aate hain kapre-niharika

Praksh Ingole said...

Press se yaad aayaa--hum press karte the apne school uniform sirf 15 aug aur 26 Jan ko- wo bhi lote me garam pani bhar kar.hamari apni yahi duniya ki sabse achhi aur sasti iron thi.

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